अलवार, नयनार और वीरशैव दक्षिण भारत में उत्पन्न विचारधाराएँ थी। इनमें अलवार, नयनार व तमिलनाडु से सम्बन्ध रखते थे, वही
वीरशैव कर्नाटक से सम्बन्ध रखते थे। इन्होंने जाती प्रथा के बंधनों का अपने-अपने ढंग से विरोध किया.
4. अलवार और नयनार संतों ने जाति प्रथा व ब्राह्मणों की प्रभुता के विरोध में आवाज़ उठाई। यह बात सत्य प्रतीत होती है क्योंकि भक्ति
संत विविध समुदायों से थे जैसे ब्राह्मण, शिल्पकार, किसान और कुछ तो उन जातियों से आए थे जिन्हें 'अस्पृश्य" माना जाता था।
2. अलवार और नयनारे संतों की रचनाओं को वेद जितना महत्त्वपूर्ण बताया गया। जैसे अलवार संतों के मुख्य काव्य संकलन
'नत्रयिरादिव्यप्रबन्धम् का वर्णन तमिल्र वेद के रूप में किया जाता था। इस प्रकार इस ग्रंथ का महत्त्व संस्कृत के चारों वेदों जितना
बताया गया जो ब्राह्मणों द्वारा पोषित थे।
3. वीरशैवों ने भी जाति की अवधारणा का विरोध किया। उन्होंने पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानने से इंकार कर दिया। ब्राह्मण धर्मशास्त्रों
में जिन आचारों को अस्वीकार किया गया था; जैसे-वयस्क विवाह और विधवा पुनर्विवाह, वीरशैवों ने उन्हें मान्यता प्रदान की। इन सब
कारणों से ब्राह्मणों ने जिन समुदायों के साथ भेदभाव किया, वे वीर॒शैवों के अनुयायी हो गए। वीरशैवों ने संस्कृत भाषा को त्यागकर
कल्नड़ कआाषा का प्रयोग शुरू किया।
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